आसमाँ अहल-ए-ज़मीं से क्या कुदूरत-नाक था
मुद्दई भी ख़ाक थी और मुद्दआ' भी ख़ाक था
Gulzar
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Javed Akhtar
Wasi Shah
Parveen Shakir
Allama Iqbal
Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
Ahmad Faraz
Rahat Indori
Mir Taqi Mir
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(795) Peoples Rate This
उस ख़ित्ते की जा आलम-ए-बाला में नहीं
ऐ अब्र कहाँ तक तिरे रस्ते देखें
कहता हूँ ख़ुदा-लगती अक़ीदे के ख़िलाफ़
हर अदावत की इब्तिदा है इश्क़
बे-गाना-अदाई है सितम जौर-ओ-सितम में
वही वा'दा है वही आरज़ू वही अपनी उम्र-ए-तमाम है
किस तरह से गिर्या को न हो तुग़्यानी
फ़ानी के है नज़दीक बक़ा को भी फ़ना
न लगती आँख तो सोने में क्या बुराई थी
ख़ुद को कभी न देखा आईने ही को देखा
दीं ही बेहोश है न दुनिया बेहोश
है मेहर-ए-करम गुनाह-गारी मेरी