उठने में दर्द-ए-मुत्तसिल हूँ मैं
उठने में दर्द-ए-मुत्तसिल हूँ मैं
गर्द-बाद-ए-ग़ुबार-ए-दिल हूँ मैं
काबे तक साथ आया शौक़-ए-सनम
हाए बुत-ख़ाना क्या ख़जिल हूँ मैं
हैफ़ किस मुद्दई की जाँ है तू
हाए किस आश्ना का दिल हूँ मैं
तुझ को दूँ क्या जवाब ऐ दावर
अपने ही आप मुन्फ़इल हूँ मैं
तेरी नाज़ुक तनी पे ग़ौर न की
अपनी उम्मीद से ख़जिल हूँ मैं
न हिला उस के दर से ता-महशर
मरक़द-ए-आरज़ू की सिल हूँ में
ख़ाक-ए-हस्ती की गर्द-बाद है तू
आतिश-ए-दिल की आब-ओ-गिल हूँ मैं
हद नहीं कोई अपनी हालत की
कि निगाहों में मुंतक़िल हूँ मैं
छा गया ये तसव्वुर उस बुत का
नक़्श-ए-चीं और बुत-ए-चगिल हूँ मैं
ज़र्रा सी ज़िंदगी पहाड़ हुई
आँख का अपनी आप तिल हूँ मैं
ऐ 'क़लक़' क्यूँ कि छोड़ दूँ वहशत
वज़्अ' में अपनी मुस्तक़िल हूँ मैं
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