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उठने में दर्द-ए-मुत्तसिल हूँ मैं - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

उठने में दर्द-ए-मुत्तसिल हूँ मैं

उठने में दर्द-ए-मुत्तसिल हूँ मैं

गर्द-बाद-ए-ग़ुबार-ए-दिल हूँ मैं

काबे तक साथ आया शौक़-ए-सनम

हाए बुत-ख़ाना क्या ख़जिल हूँ मैं

हैफ़ किस मुद्दई की जाँ है तू

हाए किस आश्ना का दिल हूँ मैं

तुझ को दूँ क्या जवाब ऐ दावर

अपने ही आप मुन्फ़इल हूँ मैं

तेरी नाज़ुक तनी पे ग़ौर न की

अपनी उम्मीद से ख़जिल हूँ मैं

न हिला उस के दर से ता-महशर

मरक़द-ए-आरज़ू की सिल हूँ में

ख़ाक-ए-हस्ती की गर्द-बाद है तू

आतिश-ए-दिल की आब-ओ-गिल हूँ मैं

हद नहीं कोई अपनी हालत की

कि निगाहों में मुंतक़िल हूँ मैं

छा गया ये तसव्वुर उस बुत का

नक़्श-ए-चीं और बुत-ए-चगिल हूँ मैं

ज़र्रा सी ज़िंदगी पहाड़ हुई

आँख का अपनी आप तिल हूँ मैं

ऐ 'क़लक़' क्यूँ कि छोड़ दूँ वहशत

वज़्अ' में अपनी मुस्तक़िल हूँ मैं

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