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उड़ाऊँ न क्यूँ तार-तार-ए-गरेबाँ - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

उड़ाऊँ न क्यूँ तार-तार-ए-गरेबाँ

उड़ाऊँ न क्यूँ तार-तार-ए-गरेबाँ

कि पर्दा-दरी है शिआ'र-ए-गरेबाँ

हर इक तार है दस्त-गीर-ए-तमाशा

किया ज़ोफ़ ने शर्मसार-ए-गरेबाँ

कतान-ओ-गुल-ओ-सीना-ए-अहल-ए-हसरत

बहुत चीज़ हैं यादगार-ए-गरेबाँ

अगर दुश्मनी बख़िया-गर को नहीं

तो क्यूँ इस क़दर दोस्त-दार-ए-गरेबाँ

यहीं क़ैद-ए-रस्म ख़लाइक़ पसंद

हर इक साँस है ख़ार-ख़ार-ए-गरेबाँ

वफ़ा है मिरी पेश-दस्त-ए-सलासिल

तिरा पर्दा है पेश-कार-ए-गरेबाँ

ये उड़ने में चालाक हर पारा है

रम-ए-दश्त-ए-वहशत शिकार-ए-गरेबाँ

कभी कोह में दश्त में है कभी

नहीं कुछ गुलू पर मदार-ए-गरेबाँ

'क़लक़' क्यूँ के पर्दा न उठता हमारा

कि है बख़िया-गर राज़-दार-ए-गरेबाँ

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