Warning: session_start(): open(/var/cpanel/php/sessions/ea-php56/sess_7dfa6e063c11fefc2de592e3f4d895ab, O_RDWR) failed: Disk quota exceeded (122) in /home/dars/public_html/helper/cn.php on line 1

Warning: session_start(): Failed to read session data: files (path: /var/cpanel/php/sessions/ea-php56) in /home/dars/public_html/helper/cn.php on line 1
तुझे कल ही से नहीं बे-कली न कुछ आज ही से रहा क़लक़ - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

तुझे कल ही से नहीं बे-कली न कुछ आज ही से रहा क़लक़

तुझे कल ही से नहीं बे-कली न कुछ आज ही से रहा क़लक़

तिरी उम्र सारी यूँही कटी तू हमेशा यूँही जिया 'क़लक़'

हुआ दिल के जाने का अब यक़ीं कि वो दर्द-ए-बर में मरे नहीं

न वो इज़्तिराब-ए-क़ज़ा कहीं न वो हश्र-ख़ेज़ बला 'क़लक़'

मुझे हश्र कर दिया बैठना मुझे क़हर हो गया ठहरना

है बसान-ए-सब्र गुरेज़-पा नहीं ग़म-गुसार मिरा क़लक़

उन्हें नाला करने का रंज क्या उन्हें आह भरने का रंज क्या

उन्हें मेरे मरने का रंज क्या उन्हें मेरे जाने का क्या क़लक़

यही रश्क ने दिए मशवरे कभी पर्दा उन का न खोलिए

मिरे जी ही जी में फिरा किए मिरे दिल ही दिल में रहा क़लक़

न तो रोए ग़ैर न घर रहे न शब-ए-फ़िराक़ में मर रहे

न वफ़ा करे न सितम सहे न जफ़ा हुई न हुआ क़लक़

न वो मैं रहा न वो तू रहा न वो आरज़ू न वो मुद्दआ'

हुआ ज़िंदगी का भी फ़ैसला मगर एक तेरा रहा क़लक़

रहे लाख सदमे नफ़स नफ़स जिए क्यूँ कि कोई पराए बस

शब-ए-वस्ल मरने की थी हवस शब-ए-हिज्र जीने का था क़लक़

नहीं चैन उन को भी एक दम कि है फ़िक्र-ए-जौर का ग़म सा ग़म

हुए मुझ पे रोज़ नए सितम रहा उन को रोज़ नया क़लक़

करे रब्त कोई किसी से क्या कि उठा तरीक़ निबाह का

न करेगी तुझ से वफ़ा जफ़ा न करेगा मुझ से वफ़ा क़लक़

मैं जला तो शो'ले में जोश था जो हुआ मैं ख़ाक है ज़लज़ला

मैं हज़ार शक्ल बदल चुका प किसी तरह न छुपा क़लक़

नहीं तेरे फिरने का कुछ गिला कि ज़माना सारा बदल गया

जो शब-ए-विसाल में चैन था वही रोज़-ए-हिज्र बना क़लक़

वो है इल्तिफ़ात दम-ए-सितम कि ज़ियादा इस से नहीं करम

मिरे चाक-ए-दिल का रफ़ू अलम मिरे दर्द-ए-जाँ की दवा क़लक़

गए वाँ भी पर न घटा अलम छुटे सब से पर न छुटा अलम

मिरे पास से न हटा अलम मिरे साथ से न टला क़लक़

अभी था सला-ए-ज़न-ए-सबक़ अभी थी किताब-ए-वरक़-वरक़

कभी मदरसे में रहा 'क़लक़' कभी मय-कदे में रहा 'क़लक़'

(856) Peoples Rate This

Your Thoughts and Comments

Tujhe Kal Hi Se Nahin Be-kali Na Kuchh Aaj Hi Se Raha Qalaq In Hindi By Famous Poet Ghulam Maula Qalaq. Tujhe Kal Hi Se Nahin Be-kali Na Kuchh Aaj Hi Se Raha Qalaq is written by Ghulam Maula Qalaq. Complete Poem Tujhe Kal Hi Se Nahin Be-kali Na Kuchh Aaj Hi Se Raha Qalaq in Hindi by Ghulam Maula Qalaq. Download free Tujhe Kal Hi Se Nahin Be-kali Na Kuchh Aaj Hi Se Raha Qalaq Poem for Youth in PDF. Tujhe Kal Hi Se Nahin Be-kali Na Kuchh Aaj Hi Se Raha Qalaq is a Poem on Inspiration for young students. Share Tujhe Kal Hi Se Nahin Be-kali Na Kuchh Aaj Hi Se Raha Qalaq with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.