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तेरे वादे का इख़्तिताम नहीं - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

तेरे वादे का इख़्तिताम नहीं

तेरे वादे का इख़्तिताम नहीं

कि क़यामत पे भी क़याम नहीं

बेवफ़ाई तुम्हारी आम हुई

अब किसी को किसी से काम नहीं

किस लिए दावा-ए-ज़ुलेख़ाई

ग़ैर यूसुफ़ नहीं ग़ुलाम नहीं

वस्ल के बअ'द हिज्र का क्या काम

दूर गर्दूं का इंतिज़ाम नहीं

कौन सुनता है नाला-ओ-फ़रियाद

चर्ख़ को ख़ौफ़-ए-इंतिक़ाम नहीं

ख़ाल-ए-लब देख कर हुआ मालूम

कोई दाना बग़ैर-ए-दाम नहीं

आप में क्यूँ कि आऊँ जब कि तू आए

ख़ल्वत-ए-ख़ास बज़्म-ए-आम नहीं

नाला करता हूँ लोग सुनते हैं

आप से मेरा कुछ कलाम नहीं

जिस जगह है वहाँ भी है बोहतान

कि किसी जा तिरा मक़ाम नहीं

रोज़-ए-फ़ुर्क़त को रोज़-ए-हश्र न जान

शाम पर भी तो इख़्तिताम नहीं

है ख़ुदा ही 'क़लक़' जो आज बुझे

सुब्ह होते नहीं कि शाम नहीं

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