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तेरे दर पर मक़ाम रखते हैं - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

तेरे दर पर मक़ाम रखते हैं

तेरे दर पर मक़ाम रखते हैं

क़स्द-ए-दार-उस-सलाम रखते हैं

इब्तिदा अपनी इंतिहा से परे

ना-तमामी तमाम रखते हैं

आसमाँ से किसे उमीद-ए-नजात

आशियाँ ज़ेर-ए-दाम रखते हैं

एक यूसुफ़ कि साथ ग़ुर्बत में

ऐसे लाखों ग़ुलाम रखते हैं

बे-बहा शय हूँ मैं कि वो मुझ को

ना-ख़रीदा ग़ुलाम रखते हैं

सब की सुनते हैं करते हैं जी की

काम से अपने काम रखते हैं

वस्ल-ए-माशूक़ है सुलैमानी

वो ही जम हैं जो जाम रखते हैं

कुछ तिरी दोस्ती की क़द्र नहीं

दुश्मनी ख़ास-ओ-आम रखते हैं

क़ैस ओ फ़रहाद कहते हैं वो मुझे

कैसे गिन गिन के नाम रखते हैं

नालों को रोक रोक लेते हैं

दिल को हम थाम थाम रखते हैं

काबे में एक दम की मेहमानी

मय-कदे में मुदाम रखते हैं

दिल-रुबा कहने से वो चौंक उठे

गोया हम इत्तिहाम रखते हैं

चश्म-ए-बद-दूर ऐश-ए-अहद-ए-शबाब

सुब्ह हम-रंग-ए-शाम रखते हैं

ऐ 'क़लक़' बैठिए सर-ए-ख़ुम-ए-मय

आप आली मक़ाम रखते हैं

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