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राज़-ए-दिल दोस्त को सुना बैठे - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

राज़-ए-दिल दोस्त को सुना बैठे

राज़-ए-दिल दोस्त को सुना बैठे

मुफ़्त में मुद्दई बना बैठे

अंजुमन है तिरी तिलिस्म-ए-रश्क

आश्ना हैं जुदा जुदा बैठे

कसरत-ए-सज्दा से पशेमाँ हैं

कि तिरा नक़्श-ए-पा मिटा बैठे

कल जो ताज-ओ-हशम को छोड़ उठे

आज वो तेरे दर पे आ बैठे

की है आख़िर को नाश्ता-शिकनी

दाग़ पर दाग़ हम तो खा बैठे

तर्ज़-ए-साक़ी से दैर के सब लोग

कर रहे हैं ख़ुदा ख़ुदा बैठे

शाख़-ए-गुल की नज़ाकतों से डरे

बार थे मुश्त-ए-पर उड़ा बैठे

शिकवा आशिक़-कुशी का फ़र्ज़ न था

याद ये क्या उन्हें दिला बैठे

दर्द-ए-सर थी दुआ मोहब्बत में

हाथ हम जान से उठा बैठे

ऐ क़यामत तू उठ के पूछ मिज़ाज

हैं वो कुछ आप ही ख़फ़ा बैठे

रोए इतने कि ख़ूँ हुई उम्मीद

ख़ुद जहाज़ अपना हम बहा बैठे

बे-तकल्लुफ़ मक़ाम-ए-उल्फ़त है

दाग़ उट्ठे कि आबला बैठे

आसमाँ ढह पड़ा उठे फ़ित्ने

जिस जगह ले के मुद्दआ' बैठे

रस्म-ए-ताज़ीम-ए-इश्क़ तो देखो

दर्द उट्ठा कि जी मिरा बैठे

ऐ 'क़लक़' तुम सा बद-दिमाग़ है कौन

चर्ख़ की ज़िद पे घर लुटा बैठे

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