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नक़्श-बर-आब नाम है सैल-ए-फ़ना मक़ाम - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

नक़्श-बर-आब नाम है सैल-ए-फ़ना मक़ाम

नक़्श-बर-आब नाम है सैल-ए-फ़ना मक़ाम

इस ख़ानुमाँ-ख़राब का क्या नाम क्या मक़ाम

हर रोज़ ताज़ा मंज़िल ओ हर शब नया मक़ाम

मोहलत नहीं क़याम की दुनिया है क्या मक़ाम

जा मिल गई जिसे तिरी दीवार के तले

है उस को गोर-ए-तंग भी इक दिल-कुशा मक़ाम

डरते हैं हम तो नाम भी लेते हुए तिरा

तू ही बता कि पूछिए क्यूँकर तिरा मक़ाम

इंसान की सरिश्त में है उज़्र-ए-लंग-ए-ज़ोफ़

साबित हुआ कि दूर है मुझ से मिरा मक़ाम

अंदाज़ा ही ग़लत था मगर इम्तियाज़ का

या'नी महल्ल-ए-ग़ैर ही था आप का मक़ाम

खिलता नहीं कभी न कभी साफ़ ही रहे

किस तरह हो सुबूत कि दिल है तिरा मक़ाम

वाइ'ज़ मुनाज़अत का सबब मुझ में तुझ में क्या

मस्जिद तिरा महल है मिरा मय-कदा मक़ाम

याँ वाँ इधर उधर यूँ ही गिर-पड़ के की बसर

मिस्ल-ए-ग़ुबार-ए-राह रहा जा-ब-जा मक़ाम

ऐ अहल-ए-दैर ज़िक्र-ए-हरम तुम से या करें

पूछो बुतों ही से कभी काबा भी था मक़ाम

क्या क्या बयाँ जहाँ के करें अम्न-ओ-चैन को

उस के भी दर पे अपना तो मुद्दत रहा मक़ाम

क्या जानिए 'क़लक़' कि इरादा है अपना क्या

मतलब से कुछ सफ़र न सर-ए-मुद्दआ' मक़ाम

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