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न रहा शिकवा-ए-जफ़ा न रहा - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

न रहा शिकवा-ए-जफ़ा न रहा

न रहा शिकवा-ए-जफ़ा न रहा

हो के दुश्मन भी आश्ना न रहा

बेवफ़ा जान-ओ-माल बे-सर्फ़ा

क्या रहा जब कि दिल-रुबा न रहा

सभी अग़्यार हैं सभी आशिक़

ए'तिमाद उस का एक जा न रहा

ख़ाक था जिस चमन की रंग-ए-इरम

पत्ते पत्ते का वाँ पता न रहा

वस्ल में क्या विसाल मुश्किल था

याद पर रोज़ हिज्र का न रहा

ख़त मिरा वाँ गया गया न गया

सर-ए-क़ासिद रहा रहा न रहा

दिल में रहता है कौन ग़म के सिवा

कोई इस घर में दूसरा न रहा

ग़ैर और शिकवा-ए-जफ़ा तुम से

हाए मैं क़ाबिल-ए-वफ़ा न रहा

क्या हुआ क्यूँ 'क़लक़' को रोते हो

कोई इस दहर में सदा न रहा

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