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न हो आरज़ू कुछ यही आरज़ू है - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

न हो आरज़ू कुछ यही आरज़ू है

न हो आरज़ू कुछ यही आरज़ू है

फ़क़त मैं ही मैं हूँ तो फिर तू ही तू है

न ये है न वो है न मैं हूँ न तू है

हज़ारों तसव्वुर और इक आरज़ू है

न उम्मीद झूटी न कुछ यास सच्ची

नहीं जो कहीं भी वही चार-सू है

किसे ढूँढते हैं यही ढूँढते हैं

यही जुस्तुजू है अगर जुस्तुजू है

जगाएगा किस तरह शोर-ए-क़यामत

ख़मोशी से नाचार हर गुफ़्तुगू है

ख़ुदी भी हमारी ख़ुदाई सही

वही हम-नशीं है वही दू-ब-दू है

मगर दशना था साया-ए-ज़ुल्फ़-ए-साक़ी

कि जो ज़ख़्म है साग़र-ए-मुश्क-बू है

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