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मातम-ए-दीद है दीदार का ख़्वाहाँ होना - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

मातम-ए-दीद है दीदार का ख़्वाहाँ होना

मातम-ए-दीद है दीदार का ख़्वाहाँ होना

जिस क़दर देखना उतना ही पशेमाँ होना

सख़्त दुश्वार है आसान का आसाँ होना

ख़ून-ए-फ़ुर्सत है यहाँ सर-ब-गरेबाँ होना

तेरा दीवाना तो वहशत की भी हद से निकला

कि बयाबाँ को भी चाहे है बयाबाँ होना

कूचा-ए-ग़ैर में क्यूँ कर न बनाऊँ घर को

मेरी आबादी से आबाद है वीराँ होना

ख़ाक-ए-वहशी से अगर रब्त है ठोकर को तिरी

दौर-ए-दामन से नहीं दौर-ए-गरेबाँ होना

न वो ख़ूँ ही है जिगर में न वो रोने का दिमाग़

मिल गया ख़ाक में हर अश्क का तूफ़ाँ होना

जी का जी ही में रहा हर्फ़-ए-तमन्ना अफ़्सोस

कहना कुछ आप ही और आप पशेमाँ होना

दिल से अंदाज़-ए-शिकन ज़ुल्फ़ ने सब जम्अ' किए

छेड़ कर उस को कहीं तू न परेशाँ होना

तुझ को अरमान-ए-ख़राबी है जो ऐ देहली और

सीख जा घर में मिरे रह के बयाबाँ होना

दिल है इक क़तरा-ए-ख़ूँ जिस पे ये सीना ज़ोरी

कुछ समझता ही नहीं हम-सफ़-ए-मिज़्गाँ होना

मुझ में कुछ ताब हो ऐ जाँ तो मैं बे-ताब रहूँ

वर्ना दुश्वार है इस राज़ का पिन्हाँ होना

याद-ए-मिज़्गाँ से इधर ज़ख़्म-ए-जिगर पर खाना

और उधर शोरिश-ए-दिल से नमक-अफ़्शाँ होना

आज वो वक़्त 'क़लक़' पर है कि जूँ इब्न-ए-ख़लील

ग़ैर तस्लीम नहीं क़त्ल का आसाँ होना

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