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क्या आ के जहाँ में कर गए हम - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

क्या आ के जहाँ में कर गए हम

क्या आ के जहाँ में कर गए हम

इक दाग़ जिगर पे धर गए हम

मेहमान-ए-जहाँ थे एक शब के

शाम आए थे और सहर गए हम

जूँ शम्अ' तमाम उम्र रोए

हर बज़्म से चश्म-ए-तर गए हम

अपनी ही नज़र नहीं वगर्ना

तू ही था उधर जिधर गए हम

नाले में असर तो क्यूँ न होता

पर तेरा लिहाज़ कर गए हम

हम जानते हैं कि तू है हम में

गो ढूँडने दर-ब-दर गए हम

झगड़ा था जो दिल पे उस को छोड़ा

कुछ सोच के सुल्ह कर गए हम

इस दश्त के ख़ार-ओ-ख़स से बच कर

जों बाद-ए-सुबुक गुज़र गए हम

थीं लुत्फ़ से दिल में जुरअतें कुछ

पर तेरे ग़ज़ब से डर गए हम

हसरत ही से हम बने थे गोया

आँख उठते ही उठते मर गए हम

देरीना रफ़ीक़ था 'क़लक़' हाए

वो क्या ही मुआ कि मर गए हम

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