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कोई कैसा ही साबित हो तबीअ'त आ ही जाती है - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

कोई कैसा ही साबित हो तबीअ'त आ ही जाती है

कोई कैसा ही साबित हो तबीअ'त आ ही जाती है

ख़ुदा जाने ये क्या आफ़त है आफ़त आ ही जाती है

वो कैसे ही चलें थम थम क़यामत आ ही जाती है

बचे कोई किसी ढब से प शामत आ ही जाती है

सितम कर के सितम-गर की नज़र नीची ही रहती है

बुराई फिर बुराई है नदामत आ ही जाती है

ज़ुलेख़ा बे-ख़िरद आवारा लैला बद-मज़ा शीरीं

सभी मजबूर हैं दिल से मोहब्बत आ ही जाती है

चराग़-ओ-शम्अ बज़्म-ए-यार कर कर ग़ैर को फूँका

दिल-ए-अफ़सुर्दा में आख़िर हरारत आ ही जाती है

हुआ नज़रों ही नज़रों में वो महशर बर्क़-ए-सद-ख़िर्मन

मोहब्बत की निगाहों से शरारत आ ही जाती है

पसीना आ गया उन को किया वा'दा जो आने का

बुरी है नाज़ बरादारी नज़ाकत आ ही जाती है

हर इक से अब वो कहते हैं कि लो हम पर ये मरते हैं

जिएँगे इस तरह कब तक कि ग़ैरत आ ही जाती है

नहीं कुछ दिल का फिरना अहद-ए-दुश्मन से तिरा फिरना

मगर कुछ सोच कर आख़िर मुरव्वत आ ही जाती है

न होती गर नवेद-ए-मर्ग क्यूँ कर हिज्र में जीते

मोहब्बत में भी आसाइश पे निय्यत आ ही जाती है

विसाल-ए-ग़ैर के क़िस्से को सुन कर क्या तड़पता हूँ

ये अरमाँ कोई जा सकता है हसरत आ ही जाती है

अगर सद-साल कीजे शुक्र-ए-उल्फ़त कीजिए लेकिन

ये वो शेवा है बद-ज़न फिर शिकायत आ ही जाती है

'क़लक़' ख़त ग़ैर का क्यूँ कर न आता क्यूँ न तुम पढ़ते

क़ज़ा लिखी हुई हज़रत-सलामत आ ही जाती है

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