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किस क़दर दिलरुबा-नुमा है दिल - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

किस क़दर दिलरुबा-नुमा है दिल

किस क़दर दिलरुबा-नुमा है दिल

ख़ाना-ए-ग़ैर हो गया है दिल

हर घड़ी क्यूँ न ज़लज़ले में रहे

मशहद-ए-हसरत-ओ-वफ़ा है दिल

मौत भी सहल कुछ नहीं अपनी

किस लिए ताक़त-आज़मा है दिल

मस्लहत इस में हो न कोई काश

दुश्मन-ए-जान हो गया है दिल

सब से लग चलने की हुई है खो

किस क़दर सर्फ़-ए-आश्ना है दिल

शैख़-ए-सनआँ का याद है क़िस्सा

सख़्त काफ़िर बुरी बला है दिल

अपनी हालत में मुब्तला हूँ आप

दिल-रुबा जाँ है जाँ-रुबा है दिल

बलबे वामांदगी की तेज़ रवी

जैसे जाने पे आ गया है दिल

किस जफ़ा-कार की वफ़ा है जाँ

किस सितम-कश का मुद्दआ' है दिल

तेरी उल्फ़त का नक़्द दाग़-ए-जिगर

मेरी हसरत का ख़ूँ-बहा है दिल

कहिए किस से लगा लिया लग्गा

ऐ 'क़लक़' क्यूँ के लग चला है दिल

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