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जो दिलबर की मोहब्बत दिल से बदले - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

जो दिलबर की मोहब्बत दिल से बदले

जो दिलबर की मोहब्बत दिल से बदले

तो लूँ उम्मीद-ए-ला-हासिल से बदले

मुहाल-ए-अक़्ल कोई शय नहीं है

जो आसानी मिरी मुश्किल से बदले

जहाँ है कोर और ख़ुर्शीद महजूब

कहाँ तक शम्अ' हर महफ़िल से बदले

तही-दस्त-ए-मोहब्बत तो भी समझो

जो जम-साग़र को जाम-ए-गिल से बदले

हर इक को जान देने की ख़ुशी हो

अजल गर नावक-ए-क़ातिल से बदले

अगर हो चीं-जबीं क़ातिल दम-ए-क़त्ल

क़यामत क़ामत-ए-क़ातिल से बदले

अभी हम तो अदू से भी बदल लें

जो ग़म को ग़म से दिल को दिल से बदले

खुले अहवाल-ए-दिल जब नासेहों पर

तह-ए-दरिया अगर साहिल से बदले

शबिस्ताँ छोड़ कर लैला हो मजनूँ

मिरी आग़ोश गर महमिल से बदले

न जुम्बिश इक क़दम हो आसमाँ से

मिरी मंज़िल अगर मंज़िल से बदले

बुतों का जल्वा काबे में दिखा दें

ज़रा तक़्वा दिल-ए-माइल से बदले

'क़लक़' उस ज़ुल्म का फिर क्या ठिकाना

अगर मक़्तूल ले क़ातिल से बदले

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