हम तो याँ मरते हैं वाँ उस को ख़बर कुछ भी नहीं

हम तो याँ मरते हैं वाँ उस को ख़बर कुछ भी नहीं

ऐ वो सब कुछ ही सही इश्क़ मगर कुछ भी नहीं

तुम को फ़रियाद-ए-सितम-कश का ख़तर कुछ भी नहीं

कुछ तो उल्फ़त का असर है कि असर कुछ भी नहीं

आफ़ियत एक और आज़ार हज़ारों उस में

जिस को कुछ सूद नहीं उस को ज़रर कुछ भी नहीं

ख़ल्वत-ए-राज़ में क्या काम है हंगामे का

है ख़बर-दार वही जिस को ख़बर कुछ भी नहीं

तू और इक शान कि आलम की नज़र में क्या कुछ

मैं और इक जान कि फिरते ही नज़र कुछ भी नहीं

रहम है उस का ही आशोब-ए-क़यामत की दलील

जिस से बेज़ार है वो उस को ख़तर कुछ भी नहीं

हम को इस हौसले पे क्यूँ कि फ़लक दे सामाँ

शिकवा-ए-बार है और मिन्नत-ए-सर कुछ भी नहीं

राही-ए-मुल्क-ए-अदम हैं नहीं फ़िक्र-ए-मंज़िल

क़स्द रखते हैं उधर का कि जिधर कुछ भी नहीं

ज़ीस्त अफ़्सून-ए-तमाशा है तवहहुम के लिए

होती है जल्वा-नुमा मिस्ल-ए-शरर कुछ भी नहीं

ख़ुद-परस्ती के सबब शैख़-ओ-बरहमन को है ख़ब्त

सब इधर ही की बनावट है उधर कुछ भी नहीं

आक़िबत-बीं को है हर बज़्म की शादी मातम

शम्अ' रोती है कि होते ही सहर कुछ भी नहीं

रोज़-ए-फ़ुर्क़त की दराज़ी से न देखे शब-ए-हिज्र

हसरत-ए-शाम में तशवीश-ए-सहर कुछ भी नहीं

जानते हैं कि न भटकेगा जहाँ क्या क्या कुछ

देखते हैं कि उन्हें मद्द-ए-नज़र कुछ भी नहीं

ऐ 'क़लक़' पीते ही मस्जिद में चले आते हो

बे-ख़बर कितने हो तुम भी कि ख़बर कुछ भी नहीं

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