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हर अदावत की इब्तिदा है इश्क़ - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

हर अदावत की इब्तिदा है इश्क़

हर अदावत की इब्तिदा है इश्क़

कि मोहब्बत की इंतिहा है इश्क़

लो ज़ुलेख़ा को कब हुआ है इश्क़

किस क़दर ताक़त-आज़मा है इश्क़

फ़लक ओ मुद्दई ओ यार ओ अजल

सब भले हैं मगर बुरा है इश्क़

देखिए इस का होगा क्या अंजाम

अब ख़ुदा से हमें हुआ है इश्क़

हो चुका हम से कुछ जो होना था

तू ने ये हाल क्या किया है इश्क़

वामिक़-ओ-क़ैस-ओ-कोहकन क्या थे

अजल-ओ-आफ़त-ओ-बला है इश्क़

देखना शौक़-ओ-शर्म का शेवा

हुस्न-ए-ख़ुद-बीं है ख़ुद-नुमा है इश्क़

कौन जाने था उस का नाम-ओ-नुमूद

मेरी बर्बादी से बना है इश्क़

दिल करो ख़ूँ तो क्या है दिलदारी

जान जाती रहे तो क्या है इश्क़

ग़म-ज़दाई में ग़म-फ़ज़ा क्या कुछ

दिल-रुबा या न जाँ-रुबा है इश्क़

बा-वफ़ा वो हैं बेवफ़ा है हुस्न

बेवफ़ा हम हैं बा-वफ़ा है इश्क़

ग़म्ज़ा सा ग़म्ज़ा ग़म में करता है

कुछ से कुछ अब तो हो गया है इश्क़

कैसे कैसों की उस ने ली है जान

देखना क्या ही ख़ुश-अदा है इश्क़

क्यूँ के मातम न अब वफ़ा का रहे

मेरे मरते ही मर मिटा है इश्क़

देखना मर्ग-ओ-ज़ीस्त के झगड़े

जाँ-फ़ज़ा हुस्न-ओ-जाँ-गुज़ा है इश्क़

वैसा ही है फ़रिश्ता जैसी रूह

ऐ 'क़लक़' तेरा आश्ना है इश्क़

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