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दूरी में क्यूँ कि हो न तमन्ना हुज़ूर की - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

दूरी में क्यूँ कि हो न तमन्ना हुज़ूर की

दूरी में क्यूँ कि हो न तमन्ना हुज़ूर की

मंज़िल को मेरी क़ुर्ब से निस्बत है दूर की

फ़ुर्क़त ने उस की वस्ल की तशवीश दूर की

तस्कीं नहीं है यूँ भी दिल-ए-ना-सुबूर की

मूसा के सर पे पाँव है अहल-ए-निगाह का

उस की गली में ख़ाक उड़ी कोह-ए-तूर की

कहता है अंजुमन को तिरी ख़ुल्द मुद्दई

इस बुल-हवस के दिल में तमन्ना है हूर की

वाइज़ ने मय-कदे को जो देखा तो जल गया

फैला गया चराँद शराब-ए-तहूर की

मूसा को क्यूँ न मौज-ए-तजल्ली धकेल दे

जल्वे से उस के गुल हुई मशअ'ल शुऊ'र की

अरबाब-ए-वक़्त जानते हैं रोज़गार ने

की सहव से वफ़ा तो तलाफ़ी ज़रूर की

रुस्वाइयों का हौसला घट घट के बढ़ गया

सामाँ है ख़ामुशी मिरी शोर-ए-नुशूर की

मेल आसमाँ का सू-ए-ज़मीं बे-सबब नहीं

ज़ेर-ए-क़दम जगह है सर-ए-पुर-ग़ुरूर की

उस से न मिलिए जिस से मिले दिल तमाम उम्र

सूझी हमें भी हिज्र में आख़िर को दूर की

पामाल कर रहा है सियह-रोज़ियों का जोश

मिट्टी ख़राब है मिरे कलबे में नूर की

क्या एक क़ुर्ब-ए-ग़ैर का सदमा न पोछिए

हैं दिल के आस पास बला दूर दूर की

मज़मूँ मिरे उड़ाए 'क़लक़' सब ने इस क़दर

सुनता हूँ मैं तराना ज़बानी तुयूर की

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