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दिल के हर जुज़्व में जुदाई है - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

दिल के हर जुज़्व में जुदाई है

दिल के हर जुज़्व में जुदाई है

क्या बला वस्ल की समाई है

ना-रसाई सर-ए-रसाई है

ज़ोफ़ की ताक़त आज़माई है

जाम-ओ-मीना पे नूर बरसे है

क्या घटा मय-कदे पे छाई है

यूँ तो वो आलम-आश्ना है मगर

इक मुझी से ज़रा लड़ाई है

तू मिला ग़ैर से कि ख़ाक में हम

आक़िबत हर तरह सफ़ाई है

तुम जुदा ग़ैर से हुए थे कब

वाजिबी तअ'न-ए-बेवफ़ाई है

ऐ 'क़लक़' हम से तो मिला कर यार

ख़ालिस उल्फ़त में क्या बुराई है

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