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दीदा-ए-सर्फ़-ए-इंतिज़ार है शम्अ - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

दीदा-ए-सर्फ़-ए-इंतिज़ार है शम्अ

दीदा-ए-सर्फ़-ए-इंतिज़ार है शम्अ

मेरी हालत की यादगार है शम्अ'

नहीं दिल में किसी के सोज़-ओ-गुदाज़

कि तमाशा-ए-रोज़गार है शम्अ'

पए-जुम्बिश सदा तड़पती है

तपिश-ए-ना-तवाँ शिकार है शम्अ'

रुख़-ए-रौशन है नूर-ए-बीनाई

चश्म-ए-उश्शाक़ का ग़ुबार है शम्अ'

रोज़-ए-तीरा में बद-नुमा ख़ुर्शीद

शब-ए-रौशन में तीरा-कार है शम्अ'

याद-ए-गुल-रुख़ से फूल झड़ते हैं

किस बशाशत से नौ-बहार है शम्अ'

ख़ाक नासूर-ए-दिल भरे इस का

ज़ख़्मी-ए-गिर्या-हा-ए-ज़ार है शम्अ'

हुस्न दीवाना सब को करता है

अपने ही आप पर निसार है शम्अ'

सुब्ह होते ही टिमटिमाती है

आप की चश्म-ए-पुर-ख़ुमार है शम्अ'

क्यूँ न रोए न किस तरह से जले

कि फ़ुग़ानी-ए-राज़-दार है शम्अ'

नहीं बुझती लगी हुई जी की

शाोला-ए-जान-ए-सोगवार है शम्अ'

है इधर दाग़-ए-बर्क़-ए-परवाना

और उधर चश्म-ए-अब्र-बार है शम्अ'

हुस्न भी है मआल-ए-कार वबाल

बज़्म-दर-बज़्म क्या है ख़ार है शम्अ'

झाँकना पर्दे से बुरी ख़ू है

ख़ुद-ब-ख़ुद आप शर्मसार है शम्अ'

शब-ए-तन्हाई और तू और ये

ऐ 'क़लक़' तेरी ग़म-गुसार है शम्अ'

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