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बे-गाना-अदाई है सितम जौर-ओ-सितम में - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

बे-गाना-अदाई है सितम जौर-ओ-सितम में

बे-गाना-अदाई है सितम जौर-ओ-सितम में

हम छुपने न पाए कि छुपा आप वो हम में

कुछ इल्म-ओ-ख़िरद पर नहीं तक़दीर की मिक़दार

अंदाज़ा-ए-पैमाँ न ज़्यादा में न कम में

है तर्ज़-ए-मोहब्बत ही दिल-आशोब वगर्ना

कुछ बात अदावत की न तुम में है न हम में

हर क़ाफ़िला-ए-दर्द-रसीदा की है मंज़िल

क्या जानिए आराम है क्या मुल्क-ए-अदम में

यारब हो बुरा इस हवस-ए-दिल का नहीं चैन

इफ़्लास भी खोया तलब-ए-जाह-ओ-हशम में

बे-हिस हवस-ए-वस्ल में ऐसे तो हुए हैं

लज़्ज़त है अज़िय्यत में हलावत है न सम में

अफ़्साना-ए-मय-ख़ाना है वाइ'ज़ की ज़बाँ पर

अंदाजा-ए-पैमाना है क़िंदील-ए-हरम में

मुझ को ही नहीं बे-ख़ुद-ओ-बेहोश क्या कुछ

दीवाने बने आप भी तशवीश-ए-सितम में

उस ज़ोहद-लिबासी के 'क़लक़' तेरे हैं क़ाइल

किस ढंग से लाया पिसर-ए-शैख़ को दम में

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