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ऐ सितम-आज़मा जफ़ा कब तक - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

ऐ सितम-आज़मा जफ़ा कब तक

ऐ सितम-आज़मा जफ़ा कब तक

कुश्ता-ए-ज़िंदगी वफ़ा कब तक

गर्मी-ए-कोशिश-ए-जफ़ा कब तक

दावा-ए-शोहरत-ए-वफ़ा कब तक

ऐ दिल-ए-ज़ोहद-ख़ू रिया कब तक

नामुरादाना मुद्दआ कब तक

एक में मिल गया ख़ुदा मारा

यूँ निबाहेगा दूसरा कब तक

इम्तिहाँ पर ये इम्तिहाँ ता-चंद

आज़मा आज़माएगा कब तक

हसरत आएगी दम में सौ सौ बार

ऐ हवस शोर-ए-मरहबा कब तक

क़ुदरत-ए-सब्र आक़िबत कितनी

जुरअत-ए-ताक़त-आज़मा कब तक

तुम समझ जाओ मेरी ख़ामोशी

न कहूँ कहिए मुद्दआ कब तक

कीजिए अब मिरे निबाह की फ़िक्र

यार सब्र-ए-गुरेज़-पा कब तक

ख़्वाब में भी वो आएँगे ता-चंद

मैं मिला भी तो यूँ मिला कब तक

दिल में कब तक तुम्हारे खटकूँगा

चश्म-ए-दुश्मन में मेरी जा कब तक

तंदुरुस्ती-ए-दिल है बे-जानी

दर्द-ए-बे-दर्द की दवा कब तक

तर्क की साफ़ उस ने गोयाई

नर्गिस-ए-सुर्मा-सा ख़फ़ा कब तक

ऐ दिल-ए-बे-क़रार-ओ-बे-आराम

नाला ता-चंद ता-कुजा कब तक

ऐ 'क़लक़' वस्ल में भी हूँ नाशाद

ताला-ए-ना-रसा रसा कब तक

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