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आए क्या तेरा तसव्वुर ध्यान में - ग़ुलाम मौला क़लक़ कविता - Darsaal

आए क्या तेरा तसव्वुर ध्यान में

आए क्या तेरा तसव्वुर ध्यान में

कुछ से कुछ है आन ही की आन में

याँ इशारात-ए-ग़लत पर ज़िंदगी

वाँ अदा है और ही सामान में

तेग़-ए-क़ातिल है रग-ए-गर्दन मिरी

आब-ए-पैकाँ दम तन-ए-बे-जान में

या तो क़ातिल हो गया रहम-आश्ना

या पड़े होंगे कहीं मैदान में

अश्क अपने फिर फिरा कर हर तरफ़

आए आख़िर तेरे ही दामान में

हाए कैसे कैसे वारस्ता-मिज़ाज

सर-निगूँ दम बंद हैं ज़िंदान में

काबा आँखों में समाता ही नहीं

क्या बुतों ने कह दिया कुछ कान में

आँख के उठते ही उठते कुछ न था

हम चले अरमान ही अरमान में

दैर-ओ-काबा पर नहीं मौक़ूफ़ कुछ

और ही कुछ शान है हर शान में

गिर्या-ए-सद-सिर्री और हम कम-हौसला

कश्ती अपनी आ गई तूफ़ान में

जन्नत ओ दोज़ख़ से क्या उम्मीद-ओ-बीम

हसरतें सी हसरतें हैं जान में

ख़ुद-परस्ती और इस्लाम-आफ़रीं

काबा-ए-आशिक़ है कुफ़रिस्तान में

ऐ 'क़लक़' कल तक गदा-ए-दैर थे

आज दा'वे हो गए ईमान में

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