Hope Poetry of Ghulam Husain Sajid
नाम | ग़ुलाम हुसैन साजिद |
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अंग्रेज़ी नाम | Ghulam Husain Sajid |
जन्म की तारीख | 1951 |
हासिल किसी से नक़्द-ए-हिमायत न कर सका
सर पर किसी ग़रीब के नाचार गिर पड़े
ज़मीन मेरी रहेगी न आइना मेरा
ये आब-ओ-ताब इसी मरहले पे ख़त्म नहीं
सितारा-ए-ख़्वाब से भी बढ़ कर ये कौन बे-मेहर है कि जिस ने
रुका हूँ किस के वहम में मिरे गुमान में नहीं
नशात-ए-इज़हार पर अगरचे रवा नहीं ए'तिबार करना
जिस क़दर महमेज़ करता हूँ मैं 'साजिद' वक़्त को
इस अँधेरे में चराग़-ए-ख़्वाब की ख़्वाहिश नहीं
हिकायत-ए-इश्क़ से भी दिल का इलाज मुमकिन नहीं कि अब भी
एक ख़्वाहिश है जो शायद उम्र भर पूरी न हो
उफ़ुक़ से आग उतर आई है मिरे घर भी
सुब्ह तक जिन से बहुत बेज़ार हो जाता हूँ मैं
समझते हैं जो अपने बाप की जागीर मिट्टी को
रुका हूँ किस के वहम में मिरे गुमान में नहीं
क़र्या-ए-हैरत में दिल का मुस्तक़र इक ख़्वाब है
नुमूद पाते हैं मंज़रों की शिकस्त से फ़तह के बहाने
नहीं है इस नींद के नगर में अभी किसी को दिमाग़ मेरा
नहीं आसाँ किसी के वास्ते तख़्मीना मेरा
मिरी विरासत में जो भी कुछ है वो सब इसी दहर के लिए है
मिरी सुब्ह-ए-ख़्वाब के शहर पर यही इक जवाज़ है जब्र का
मिरे नज्म-ए-ख़्वाब के रू-ब-रू कोई शय नहीं मिरे ढंग की
मता-ए-दीद तो क्या जानिए किस से इबारत है
मता-ए-बर्ग-ओ-समर वही है शबाहत-ए-रंग-ओ-बू वही है
मसाफ़त-ए-उम्र में ज़ियाँ का हिसाब होता है जुस्तुजू से
मैं अपने सूरज के साथ ज़िंदा रहूँगा तो ये ख़बर मिलेगी
लरज़ जाता है थोड़ी देर को तार-ए-नफ़स मेरा
लहू की आग अगर जलती रहेगी
कोई जब छीन लेता है मता-ए-सब्र मिट्टी से
किस ने दी आवाज़ ''सिपर की ओट में था''