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हासिल किसी से नक़्द-ए-हिमायत न कर सका - ग़ुलाम हुसैन साजिद कविता - Darsaal

हासिल किसी से नक़्द-ए-हिमायत न कर सका

हासिल किसी से नक़्द-ए-हिमायत न कर सका

मैं अपनी सल्तनत पे हुकूमत न कर सका

हर रंग में रक़ीब-ए-ज़र-ए-नाम-ओ-नंग हूँ

मैं वो हूँ जो किसी से मोहब्बत न कर सका

घुलता रहा है मेरी रगों में भी कोई ज़हर

लेकिन मैं इस दयार से हिजरत न कर सका

पड़ता नहीं किसी के बिछड़ने से कोई फ़र्क़

मैं उस को सच बताने की ज़हमत न कर सका

आया जो उस का ज़िक्र तो मैं गुंग रह गया

और आइने से उस की शिकायत न कर सका

बाक़ी रखी है मेरे लहू ने मता-ए-होश

मैं ने वफ़ा तो की थी निहायत न कर सका

अब भी शगुफ़्ता नूर से है उस को रब्त-ए-ख़ास

वो जो मिरे चराग़ की इज़्ज़त न कर सका

हर-चंद उस गुलाब पे तश्बीब खुल गई

इस पर भी मैं गुरेज़ की हिम्मत न कर सका

'साजिद' क़फ़स की तीलियों को तोड़ कर भी मैं

इस दश्त-ए-बे-कनार में वहशत न कर सका

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