दयार-ए-ख़्वाब को निकलूँगा सर उठा कर मैं
दयार-ए-ख़्वाब को निकलूँगा सर उठा कर मैं
कि शाद रहता हूँ रंज-ए-सफ़र उठा कर मैं
चराग़ जल न सकेगा जो उस की आँखों में
धरूँगा उस को किसी ताक़ पर उठा कर मैं
सुना है तख़्त मुक़द्दर से हाथ आता है
ख़जिल हूँ राहत-ए-तेग़-ओ-सिपर उठा कर मैं
चले जो सर्व-ओ-समन में भी साथ चल दूँगा
खड़ा रहूँगा न बार-ए-समर उठा कर मैं
तिरे बहिश्त में दिल लग नहीं रहा मेरा
कि साथ ला नहीं पाया हूँ घर उठा कर मैं
उलझ रहा हो अगर ग़ैर की निगाहों से
लपेट लेता हूँ तार-ए-नज़र उठा कर मैं
अलग नहीं हूँ मैं अपनी तरह के लोगों से
पड़ा हूँ ज़हमत-ए-दीवार-ओ-दर उठा कर मैं
नहीं सुनूँगा नसीहत किसी सियाने की
रहूँगा तोहमत-ए-नौ-ए-बशर उठा कर मैं
यक़ीन कैसे नहीं आएगा उन्हें मुझ पर
वफ़ा में फ़र्द हूँ ख़ौफ़-ओ-ख़तर उठा कर मैं
कहीं विसाल की सूरत अगर दिखाई दी
निकल पड़ूँगा न शम-ए-सहर उठा कर मैं
किसी परी के तसव्वुर में चूम लेता हूँ
किसी गुलाब को बार-ए-दिगर उठा कर मैं
बहुत हैं चाहने वाले मिरे जहाँ-भर में
गिरफ़्ता दिल नहीं बार-ए-हुनर उठा कर मैं
मकान छोड़ तो दूँ उस हसीं के कहने पर
गली में लाऊँगा क्या क्या मगर उठा कर मैं
मुझे वो तैश दिलाते रहे अगर 'साजिद'
तो गूँध दूँगा ये सारा नगर उठा कर मैं
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