सर पर किसी ग़रीब के नाचार गिर पड़े
सर पर किसी ग़रीब के नाचार गिर पड़े
मुमकिन है मेरे सब्र की दीवार गिर पड़े
क्या ख़ूब सुरख़-रू हुए हम कार-ए-इश्क़ में
दो-चार काम आ गए दो-चार गिर पड़े
इस बार जब अजल से मिरा सामना हुआ
कश्ती से ख़्वाब हाथ से पतवार गिर पड़े
रौशन कोई चराग़ नहीं नख़्ल-ए-तूर पर
सज्दे में किस को देख कर अश्जार गिर पड़े
करती है फ़र्श ख़ाक को दीवार-ए-आइना
आँखों से जब ये दौलत-ए-बेदार गिर पड़े
इस पार देख कर मुझे इक गुल-बदन के साथ
जितने मिरे गुलाब थे उस पार गिर पड़े
'साजिद' अगर अज़ीज़ थी अपनी अना उन्हें
क्या सोच कर गली में मिरे यार गिर पड़े
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