नुमूद पाते हैं मंज़रों की शिकस्त से फ़तह के बहाने
नुमूद पाते हैं मंज़रों की शिकस्त से फ़तह के बहाने
चराग़ ज़िंदा किया है मेरा गली में दम तोड़ती हवा ने
ये जानते हैं कि सामने है गुरेज़ करती हुई मोहब्बत
मगर मिरे साथ चल रहे हैं वही मज़ाहिर वही ज़माने
मुसाफ़िरों के लिए तो यकसाँ है दश्त और शहर से गुज़रना
कि शाम होते ही तान लेते हैं लोग ख़्वाबों के शामियाने
तो क्यूँ ये साहिल की धूप मेरे निढाल क़दमों से आ लगी है
मुझे किनारे लगा दिया है अगर किसी शख़्स की दुआ ने
किसी को इक आतिश-ए-गुमाँ ने तमाम-तर राख कर दिया है
किसी को कंदन बना दिया है यक़ीन की ख़ाक-ए-कीमिया ने
हर आन मेरे वजूद में यूँ अना की तामीर हो रही है
कि जैसे भेजा गया हूँ मैं भी ज़मीन पर इक मकाँ बनाने
मुझे यक़ीं है कि मेरे बस में है मंज़िल-ए-शौक़ पर उतरना
मुझे बहुत हौसला दिया है मिरी मोहब्बत मिरे ख़ुदा ने
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