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नुमूद पाते हैं मंज़रों की शिकस्त से फ़तह के बहाने - ग़ुलाम हुसैन साजिद कविता - Darsaal

नुमूद पाते हैं मंज़रों की शिकस्त से फ़तह के बहाने

नुमूद पाते हैं मंज़रों की शिकस्त से फ़तह के बहाने

चराग़ ज़िंदा किया है मेरा गली में दम तोड़ती हवा ने

ये जानते हैं कि सामने है गुरेज़ करती हुई मोहब्बत

मगर मिरे साथ चल रहे हैं वही मज़ाहिर वही ज़माने

मुसाफ़िरों के लिए तो यकसाँ है दश्त और शहर से गुज़रना

कि शाम होते ही तान लेते हैं लोग ख़्वाबों के शामियाने

तो क्यूँ ये साहिल की धूप मेरे निढाल क़दमों से आ लगी है

मुझे किनारे लगा दिया है अगर किसी शख़्स की दुआ ने

किसी को इक आतिश-ए-गुमाँ ने तमाम-तर राख कर दिया है

किसी को कंदन बना दिया है यक़ीन की ख़ाक-ए-कीमिया ने

हर आन मेरे वजूद में यूँ अना की तामीर हो रही है

कि जैसे भेजा गया हूँ मैं भी ज़मीन पर इक मकाँ बनाने

मुझे यक़ीं है कि मेरे बस में है मंज़िल-ए-शौक़ पर उतरना

मुझे बहुत हौसला दिया है मिरी मोहब्बत मिरे ख़ुदा ने

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