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नहीं है इस नींद के नगर में अभी किसी को दिमाग़ मेरा - ग़ुलाम हुसैन साजिद कविता - Darsaal

नहीं है इस नींद के नगर में अभी किसी को दिमाग़ मेरा

नहीं है इस नींद के नगर में अभी किसी को दिमाग़ मेरा

मगर किसी ख़्वाब के सफ़र में सिपर करेंगे चराग़ मेरा

सबाहत-ए-शम-ओ-आइना से हुई है मेरी नुमूद लेकिन

सितारा ओ आसमाँ से बाहर कहीं मिलेगा सुराग़ मेरा

तड़प उठी है किसी नगर में क़याम करने से रूह मेरी

सुलग रहा है किसी मसाफ़त की बे-कली से दिमाग़ मेरा

जराहत-ए-वस्ल ने खिलाए हैं ज़ुल्मत-ए-शाम में सितारे

मता-ए-हिज्राँ की चाँदनी से भरा हुआ है अयाग़ मेरा

लिपट रही है फ़सील की बुर्जियों से इक शहर की निगाहें

और एक दीवार-ए-आईना पर झुका हुआ है चराग़ मेरा

ये कैसी सतह-ए-रवाँ पे 'साजिद' धरी हुई है ज़मीन मेरी

कि झूमता है किसी सितारे के साँस लेने से बाग़ मेरा

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