नहीं अब रोक पाएगी फ़सील-ए-शहर पानी को
नहीं अब रोक पाएगी फ़सील-ए-शहर पानी को
बहाए जा रही है रौशनी की लहर पानी को
मुझे भी सुर्ख़ करती है ये मशअ'ल मेरी आँखों की
कि जैसे सब्ज़ करता है ज़िया का ज़हर पानी को
किसी बे-नाम सय्यारे पे अब भी अब्र छाया है
तरसता है कई दिन से अगरचे दहर पानी को
बहुत इतरा रही है मौज-ए-सहरा अपने होने पर
रवाँ रखती हो जैसे आज भी ये नहर पानी को
निकलना चाहता है क़ैद से जैसे मशिय्यत की
पसंद आया नहीं है आसमानी क़हर पानी को
उसे वो राख करने के लिए तय्यार है 'साजिद'
मुक़य्यद ही न रक्खेगा फ़क़त ये शहर पानी को
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