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मिल गई है बादिया-पैमाई से मंज़िल मिरी - ग़ुलाम हुसैन साजिद कविता - Darsaal

मिल गई है बादिया-पैमाई से मंज़िल मिरी

मिल गई है बादिया-पैमाई से मंज़िल मिरी

काम आई है बिल-आख़िर सई-ए-ला-हासिल मिरी

पाँव धरने को मयस्सर आ नहीं पाती ज़मीं

नाव रुक जाती है आ कर जब लब-ए-साहिल मिरी

इक कमी मेरी तग-ओ-दौ में कहीं मौजूद है

हो नहीं पाई अभी तक कोई शय कामिल मिरी

मिल नहीं पाती ख़ुद अपने-आप से फ़ुर्सत मुझे

मुझ से भी महरूम रहती है कभी महफ़िल मिरी

मैं यहीं रह जाऊँगा हो कर असीर-ए-दाम-ए-अस्र

राह तकता ही रहेगा मेरा मुस्तक़बिल मिरी

क्या बचाऊँ दान में क्या दूँ समझ आता नहीं

दौलत-ए-दिल माँगता है मुझ से इक साइल मिरी

कोई अपने से गिला होता न 'साजिद' दहर से

ग़ौर से इक बात सुन लेता अगर ये दिल मिरी

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