मिरी सुब्ह-ए-ख़्वाब के शहर पर यही इक जवाज़ है जब्र का
मिरी सुब्ह-ए-ख़्वाब के शहर पर यही इक जवाज़ है जब्र का
कि मिरे वजूद के बाग़ में अभी कोई फूल है सब्र का
किसी बादबान की ओट में कहीं आसमान के सामने
ये ज़िया है मिशअल-ए-ख़्वाब की कि कोई चराग़ है अब्र का
किसी सुब्ह ख़्वाहिश-ए-मर्ग से भी नुमूद पाती है ज़िंदगी
किसी शाम अपने वजूद पर भी गुमान होता है क़ब्र का
मिरी शम्-ए-नूर के उस तरफ़ मिरी ख़ाक-ए-सब्ज़ के इस तरफ़
ये नई ज़मीन है जब्र की ये नया गुलाब है सब्र का
मिरे आइने से जुदा हुआ जो चराग़-ए-हिज्र तो ये खुला
चमन-ए-सितारा-ओ-रंग में भी कहीं क़याम है अब्र का
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