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मता-ए-दीद तो क्या जानिए किस से इबारत है - ग़ुलाम हुसैन साजिद कविता - Darsaal

मता-ए-दीद तो क्या जानिए किस से इबारत है

मता-ए-दीद तो क्या जानिए किस से इबारत है

चराग़-ए-ख़्वाब ही कुछ देर रौशन हो ग़नीमत है

किसी के दर पे दस्तक दूँ तो ख़ुद बाहर निकलता हूँ

ख़बर क्या कौन से घर तक तिरे ग़म की रियासत है

सँवरते ज़ावियों में मुस्कुराती शक्ल है मेरी

चटख़्ते आइनों में भी कोई मेरी ही सूरत है

सितारों के जिलौ में और कितनी दूर तक ले जाएँ

कहो तो सुब्ह होने तक भला कितनी मसाफ़त है

नदामत फूल से नाज़ुक लबों पर बर्फ़ की सिल है

और आँखों में किसी बीते हुए दिन की वज़ाहत है

मिरे मशअल जलाते ही सितारा डूब कर निकला

मैं समझा हूँ मुझे भी लौट जाने की इजाज़त है

कभी मजबूर कर देना कभी मजबूर हो जाना

यही तेरा वतीरा है यही तेरी सियासत है

मुझे अपनी क़सम 'साजिद' मैं उस के काम आऊँगा

अगर ये इल्म हो जाए किसे मेरी ज़रूरत है

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