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मता-ए-बर्ग-ओ-समर वही है शबाहत-ए-रंग-ओ-बू वही है - ग़ुलाम हुसैन साजिद कविता - Darsaal

मता-ए-बर्ग-ओ-समर वही है शबाहत-ए-रंग-ओ-बू वही है

मता-ए-बर्ग-ओ-समर वही है शबाहत-ए-रंग-ओ-बू वही है

खुला कि इस बार भी चमन पर गिरफ़्त-ए-दस्त-ए-नुमू वही है

हिकायत-ए-इश्क़ से भी दिल का इलाज मुमकिन नहीं कि अब भी

फ़िराक़ की तल्ख़ियाँ वही हैं विसाल की आरज़ू वही है

बदल दिए हैं किसी ने अफ़्सूँ से काम ले कर तमाम मोहरे

कि सेहर-ए-इमरोज़ के मुक़ाबिल न मैं वही हूँ न तू वही है

ज़मीं पे बहती हुई ये आँखें फ़लक पे रुकते हुए ये तारे

सुना है ये फूल हैं उसी के सुना है ये आबजू वही है

मह ओ सितारा तो आइने के वजूद से मुन्हरिफ़ हुए हैं

मगर तिरी चश्म-ए-मेहरबाँ को चराग़ से गुफ़्तुगू वही है

उलझ रहा है कोई सितारा तिलिस्म-ए-इस्तख़र-ओ-नैनवा से

कि रब्ब-ए-''रअ'' के मुक़ाबले में हुआ है जो सुर्ख़-रू वही है

बहुत गिराँ है मिरे शब-ओ-रोज़ पर ये रंग-ए-विसाल 'साजिद'

मगर वही बे-कली है दिल की दिमाग़ को जुस्तुजू वही है

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