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कोई जब छीन लेता है मता-ए-सब्र मिट्टी से - ग़ुलाम हुसैन साजिद कविता - Darsaal

कोई जब छीन लेता है मता-ए-सब्र मिट्टी से

कोई जब छीन लेता है मता-ए-सब्र मिट्टी से

तो अपने आप उग आती है उस की क़ब्र मिट्टी से

सजा रखा था म'अबद के किसी तारीक गोशे में

बना कर एक दस्त-ए-मेहरबाँ ने अब्र मिट्टी से

कहाँ जी शाद रहता है फ़क़त कार-ए-मोहब्बत में

कि विर्से में मिला है आदमी को जब्र मिट्टी से

मैं इस कूज़े के पानी से कोई शमशीर ढालूँगा

और उस को आईने से आब दूँगा सब्र मिट्टी से

वो किस दुनिया से आए हैं वो किस दुनिया के बासी हैं

बनाते हैं जो गहरे पानियों में क़ब्र मिट्टी से

इसी दुनिया में बस्ते हैं अजब कुछ लोग ऐसे भी

जो पल में खींच सकते हैं रिदा-ए-जब्र मिट्टी से

मैं अगले जश्न में चूमूँगा उन बे-दाग़ हाथों को

कि जिन हाथों ने ढाला है चराग़-ए-अब्र मिट्टी से

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