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हुदूद-ए-क़र्या-ए-वहम-ओ-गुमाँ में कोई नहीं - ग़ुलाम हुसैन साजिद कविता - Darsaal

हुदूद-ए-क़र्या-ए-वहम-ओ-गुमाँ में कोई नहीं

हुदूद-ए-क़र्या-ए-वहम-ओ-गुमाँ में कोई नहीं

मिरे अलावा मिरे कारवाँ में कोई नहीं

चराग़ जलते हैं क्यूँ रात-भर मिरे दिल में

बहुत दिनों से अगर इस मकाँ में कोई नहीं

है मेरी फ़त्ह-ओ-हज़ीमत का क्यूँ असर उस पर

शरीक अगर मिरे सूद-ओ-ज़ियाँ में कोई नहीं

ठहर सके जो मिरे सामने घड़ी-दो-घड़ी

वो शहसवार सफ़-ए-दुश्मनाँ में कोई नहीं

भटक रहा हूँ हुजूम-ए-नुजूम में तन्हा

कि मुझ सा और किसी कहकशाँ में कोई नहीं

अजीब एक मसर्रत से आश्ना हैं वो

असीर-ए-ग़म तिरे आशुफ़्तगाँ में कोई नहीं

मिली हो जिस को विरासत में उम्र-भर 'साजिद'

वो ख़ुश-नसीब किसी ख़ाक-दाँ में कोई नहीं

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