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हुआ रौशन दम-ए-ख़ुर्शीद से फिर रंग पानी का - ग़ुलाम हुसैन साजिद कविता - Darsaal

हुआ रौशन दम-ए-ख़ुर्शीद से फिर रंग पानी का

हुआ रौशन दम-ए-ख़ुर्शीद से फिर रंग पानी का

दमक उट्ठा है मेरे आइने पर ज़ंग पानी का

मुक़य्यद रंग खिलते हों किसी बिल्लोर से जैसे

खुला इस तरह मेरे ख़्वाब पर अर्ज़ंग पानी का

किसी अंजान ख़ुशबू से तबीअ'त सैर है उस की

अगरचे क़ाफ़िया कुछ रोज़ से है तंग पानी का

सताता है जो दश्त-ए-ना-मुरादी के असीरों को

वो तारा उस हसीं के सामने है दंग पानी का

बहुत ही याद आता है कोई बछड़ा हुआ मुझ को

कभी जब सामना करता हूँ शोख़-ओ-शंग पानी का

अभी फ़ुर्सत नहीं है कार-ए-दुनिया में उलझने की

मगर तब्दील कर सकता हूँ मैं भी ढंग पानी का

बहुत दिन से मैं 'साजिद' दरमियाँ हूँ अपने प्यारों के

कि ठंडा पड़ चुका है अब महाज़-ए-जंग पानी का

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