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अगर ये रंगीनी-ए-जहाँ का वजूद है अक्स-ए-आसमाँ से - ग़ुलाम हुसैन साजिद कविता - Darsaal

अगर ये रंगीनी-ए-जहाँ का वजूद है अक्स-ए-आसमाँ से

अगर ये रंगीनी-ए-जहाँ का वजूद है अक्स-ए-आसमाँ से

तो फिर रुख़-ए-शम-ओ-आइना पर खिला है ये रंग-ए-ख़ूँ कहाँ से

रुके रहेंगे फ़सील-ए-ज़ुल्मत के दाएरे पर सभी मुसाफ़िर

मगर किसी ख़्वाब के जिलौ में चराग़ निकलेगा कारवाँ से

रुकी हुई है जो एक मौज-ए-सराब की सतह पर ये दुनिया

तो मैं भी उस ख़्वाब के नगर का सुबूत लाऊँगा दास्ताँ से

ये आइना जम्अ कर रहा है नए जहाज़ों के अक्स लेकिन

ये आब-जू क़त्अ कर रही है किसी सितारे को दरमियाँ से

ये सच है मिल बैठने की हद तक तो काम आई है ख़ुश-गुमानी

मगर दिलों में ये दोस्ती की नुमूद है राहत-ए-बयाँ से

मुसाफ़िर-ए-ख़्वाब के लिए हैं ये मेरी आँखों के फूल 'साजिद'

और इक सितारे के देखने को ये आग उतरी है शम्अ-दाँ से

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