आइने में अक्स खिलता है गुल-ए-हैरत नहीं
आइने में अक्स खिलता है गुल-ए-हैरत नहीं
लोग सच कहते हैं आँखों सी कोई नेमत नहीं
अब बहर-सूरत सर-ए-मैदाँ उतरना है मुझे
कार-ज़ार-ए-इश्क़ से पस्पाई की सूरत नहीं
उस के होने से हुई है अपने होने की ख़बर
कोई दुश्मन से ज़ियादा लाएक़-ए-इज़्ज़त नहीं
सैर करना चाहता हूँ मैं जहाँ-आबाद की
और रुक कर देख लेने की मुझे फ़ुर्सत नहीं
इश्क़ पर फ़ाएज़ हूँ औरों की तरह लेकिन मुझे
वस्ल का लपका नहीं है हिज्र से वहशत नहीं
रात वो आँसू बहाए हैं कि मेरे क़ल्ब पर
सुब्ह का आग़ोश वा करना मिरी उजरत नहीं
जिस क़दर महमेज़ करता हूँ मैं 'साजिद' वक़्त को
उस क़दर बे-सब्र रहने की उसे आदत नहीं
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