फ़सील-ए-जिस्म की ऊँचाई से उतर जाएँ
फ़सील-ए-जिस्म की ऊँचाई से उतर जाएँ
तो इस ख़राबे से हम लोग फिर किधर जाएँ
हवा बताती है गुज़रेगा कारवाँ कोई
कुछ और देर इसी राह पर ठहर जाएँ
तमाम दिन तो लहू चाटता रहा सूरज
हुई है शाम चलो अपने अपने घर जाएँ
कभी तो कोई लहू के दिए जलाएगा
चलो निशान-ए-क़दम अपना छोड़ कर जाएँ
अभी सदा न दो कुछ देर और सूरज को
ये जितनी सूखी हुई नद्दियाँ हैं भर जाएँ
ये शश-जिहत तो बस इक नक़्श-ए-पा का वक़्फ़ा है
तुम्हीं बताओ कहाँ आ के हम ठहर जाएँ
'अयाज़' हम को न अपना सकी कभी दुनिया
वही सदा है तआक़ुब में हम जिधर जाएँ
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