दास्तान-ए-दर्द-ए-दिल अहल-ए-वफ़ा कहने लगे

दास्तान-ए-दर्द-ए-दिल अहल-ए-वफ़ा कहने लगे

या'नी हर आवाज़ को तेरी सदा कहने लगे

लीजिए फिर तोड़ दी यारों ने ज़ंजीर-ए-सुकूत

लीजिए हम ज़िंदगी का मर्सिया कहने लगे

ये भी अपनी तंग-नज़री की है इक वाज़ेह दलील

हम जो हर चेहरे को अब इक आइना कहने लगे

फिर नई तहज़ीब का इक बाब रौशन हो गया

लोग फिर अब दास्तान-ए-इर्तिक़ा कहने लगे

इतनी आवारा-मिज़ाजी भी 'अयाज़' अच्छी नहीं

देख तेरे बारे में अब लोग क्या कहने लगे

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