दाना-ओ-दाम सँभाला मिरे सय्याद ने फिर
अपनी गर्दन है वही इश्क़ का फंदा है वही
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मक़्सूद-ए-उल्फ़त
नाज़ ने फिर किया आग़ाज़ वो अंदाज़-ए-नियाज़
दर्द उल्फ़त का न हो तो ज़िंदगी का क्या मज़ा
फिर वही हम हैं ख़याल-ए-रुख़-ए-ज़ेबा है वही
कभी सूरत जो मुझे आ के दिखा जाते हो
इक हुजूम-ए-ग़म-ओ-कुलफ़त है ख़ुदा ख़ैर करे
कहते हैं ईद है आज अपनी भी ईद होती
आह! कल तक वो नवाज़िश! आज इतनी बे-रुख़ी
किस तरह वाक़िफ़ हों हाल-ए-आशिक़-ए-जाँ-बाज़ से
महव-ए-दीद-ए-चमन-ए-शौक़ है फिर दीदा-ए-शौक़