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मक़्सूद-ए-उल्फ़त - ग़ुलाम भीक नैरंग कविता - Darsaal

मक़्सूद-ए-उल्फ़त

क्या मिरे हुस्न-ए-दिल-आवेज़ पे तू मरता है

शोला-रूई पे मिरी जान फ़िदा करता है

ये अगर सच है तो जा मुझ से मोहब्बत मत कर

निगह-ए-इश्क़ रुख़-ए-महर-ए-जहाँ-ताब पे डाल

हुस्न-ए-बे-मिस्ल को जिस के न अजल है न ज़वाल

कम-सिनी पर मिरी माइल है तबीअ'त तेरी

हुस्न-ए-नौ-ख़ेज़ से वाबस्ता है उल्फ़त तेरी

ये अगर सच है तो जा मुझ से मोहब्बत मत कर

तेरी उल्फ़त के है क़ाबिल रुख़-ए-ज़ेबा-ए-बहार

जिस के अनमोल जवाहर का नहीं कोई शुमार

चाहता है मुझे तू क्या मिरी हशमत के लिए

दिल है बेकल तिरा मेरे ज़र-ओ-दौलत के लिए

ये अगर सच है तो जा मुझ से मोहब्बत मत कर

चाहिए तुझ को करे बहर-ए-गुहर-ख़ेज़ से प्यार

जिस के अनमोल जवाहर का नहीं कोई शुमार

प्यार मुझ से है तुझे क्या मिरी उल्फ़त के लिए

दिल है परवाना तिरा शम-ए-मोहब्बत के लिए

ये अगर सच है तो कर मुझ से मोहब्बत प्यारे

बेहतर अज़ मेहर-ओ-बहार-ए-दिल-ए-शैदा मेरा

बहर में भी नहीं ऐसा गुहर-ए-मेहर-ओ-वफ़ा

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