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कट गई बे-मुद्दआ सारी की सारी ज़िंदगी - ग़ुलाम भीक नैरंग कविता - Darsaal

कट गई बे-मुद्दआ सारी की सारी ज़िंदगी

कट गई बे-मुद्दआ सारी की सारी ज़िंदगी

ज़िंदगी सी ज़िंदगी है ये हमारी ज़िंदगी

क्या इरादों से है हासिल? ताक़त-ओ-फ़ुर्सत कहाँ

हाए कहलाती है क्यूँ बे-अख़्तियारी ज़िंदगी

ऐ सर-ए-शोरीदा अब तेरे वो सौदा क्या हुए!

क्या सदा से थी यही ग़फ़लत-शिआरी ज़िंदगी

दर्द उल्फ़त का न हो तो ज़िंदगी का क्या मज़ा

आह-ओ-ज़ारी ज़िंदगी है बे-क़रारी ज़िंदगी

आरज़ू-ए-ज़ीस्त भी याँ याँ आरज़ू-ए-दीद है

तू न प्यारा हो तो मुझ को हो न प्यारी ज़िंदगी

और मुरझाएगी तेरी छेड़ से दिल की कली

कर न दूभर मुझ पे ऐ बाद-ए-बहारी ज़िंदगी

याँ तो ऐ 'नैरंग' दोनों के लिए सामाँ नहीं

मौत भी मुझ पर गिराँ है गर है भारी ज़िंदगी

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