न सुब्ह वुसअ'त न शाम वुसअ'त
न सुब्ह वुसअ'त न शाम वुसअ'त
ये किस ने कर दी हराम वुसअ'त
मिरे बदन में सिमट गई है
मिरे परों की तमाम वुसअ'त
हवस के शो'ले भड़क रहे हैं
झुलस रही है मुदाम वुसअ'त
घुटन सी होती है उस से मिल कर
और उस ने रक्खा है नाम वुसअ'त
तिरी ही ख़ातिर लहू का सौदा
तो फिर तुझे तो सलाम वुसअ'त
मैं जब से 'अमजद' सिमट गया हूँ
वो ले के बैठे हैं ख़ाम वुसअ'त
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