कोई दो-चार नहीं महव-ए-तमाशा सब हैं
कोई दो-चार नहीं महव-ए-तमाशा सब हैं
मेरे एहसास की आवाज़ पे ज़िंदा सब हैं
कोई जुगनू कोई तारा कोई सूरज कोई चाँद
और अजब बात कि महरूम-ए-उजाला सब हैं
उस जगह भी न हुई दर्द की लज़्ज़त महसूस
मैं समझता था जहाँ मेरे शनासा सब हैं
यूसुफ़-ए-वक़्त परेशान न होते क्यूँकर
कोई उँगली न कटी और ज़ुलेख़ा सब हैं
अर्सा-ए-हश्र की तस्वीर अजब है 'अमजद'
बे-कराँ भीड़ है और भीड़ में तन्हा सब हैं
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