कब से बंजर थी नज़र ख़्वाब तो आया
कब से बंजर थी नज़र ख़्वाब तो आया
शुक्र है दश्त में सैलाब तो आया
रौशनी ले के अक़ीदों के खंडर में
मक्र ओढ़े सही महताब तो आया
कश्ती-ए-जाँ को ये तस्कीन बहुत है
ख़ैरियत पूछने गिर्दाब तो आया
दौलत इश्क़ गँवा कर सही 'अमजद'
फ़हम में नुक्ता-ए-आदाब तो आया
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