इक ख़लिश है मिरे बाहर मिरी दम-साज़ गिरी
इक ख़लिश है मिरे बाहर मिरी दम-साज़ गिरी
किस बुलंदी पे थी जिस दम मिरी पर्वाज़ गिरी
मेरी दहलीज़ पे रक्खा है कुछ अँगारों सा
मेरे आँगन में भी झुलसी हुई आवाज़ गिरी
किसी ए'ज़ाज़ पे अब सिक्का-ए-दिल क्या उछले
इस तवातुर से मियाँ क़ीमत-ए-ए'ज़ाज़ गिरी
अब भला कौन करे चाक गरेबान-ए-जुनूँ
अज़्मत-ए-ज़ुल्फ़ घटी चश्म-ए-कँवल-नाज़ गिरी
इश्क़ ने मो'जिज़ा इस तरह दिखाया 'अमजद'
हुस्न के हाथ से शमशीर-ए-शरर-बाज़ गिरी
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