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तिरा मय-ख़्वार ख़ुश-आग़ाज़-ओ-ख़ुश-अंजाम है साक़ी - ग़ुबार भट्टी कविता - Darsaal

तिरा मय-ख़्वार ख़ुश-आग़ाज़-ओ-ख़ुश-अंजाम है साक़ी

तिरा मय-ख़्वार ख़ुश-आग़ाज़-ओ-ख़ुश-अंजाम है साक़ी

कि दिल में याद तेरी लब पे तेरा नाम है साक़ी

मुहीत दौर-ए-साग़र चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम है साक़ी

ग़ुलाम-ए-चश्म-ए-मैगूँ गर्दिश-ए-अय्याम है साक़ी

दिल-ए-नाकाम को उल्फ़त से तेरी काम है साक़ी

मोहब्बत बे-नियाज़-ए-इबरत-ए-अंजाम है साक़ी

ज़माने से अलग हो कर मुझे दुनिया-ए-उल्फ़त में

तिरा रुख़ रोज़-ए-रौशन ज़ुल्फ़ तेरी शाम है साक़ी

इसी में आ गई है खिंच के साक़ी रूह तक़्वा की

मता-ए-दीन-ओ-ईमाँ क़ीमत-ए-इक-जाम है साक़ी

ख़ुदा रक्खे तिरी ज़ुल्फ़-ए-मोअ'म्बर के तसव्वुर से

तख़य्युल मेरा अंबर-बेज़-ओ-अंबर-फ़ाम है साक़ी

ख़ुदारा इस तरफ़ भी इक निगाह-ए-लुत्फ़ हो जाए

मिरी हस्ती हमा हसरत हमा आलाम है साक़ी

हुए हैं दिल पे इस से मुन्कशिफ़ असरार हस्ती के

नवा-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना मुझे इल्हाम है साक़ी

शरफ़ तेरी ग़ुलामी का बड़ी मुश्किल से मिलता है

ज़हे-क़िस्मत जो तेरा बंदा-ए-बे-दाम है साक़ी

अज़ल से ता-अबद यूँही रहेगा ख़ाक-ए-मय-ख़ाना

'ग़ुबार'-ए-ख़स्ता-ओ-नाकाम जिस का नाम है साक़ी

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