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जल्वा-ए-हुस्न अगर ज़ीनत-ए-काशाना बने - ग़ुबार भट्टी कविता - Darsaal

जल्वा-ए-हुस्न अगर ज़ीनत-ए-काशाना बने

जल्वा-ए-हुस्न अगर ज़ीनत-ए-काशाना बने

दस्तरस शम्अ' को हासिल हो तो परवाना बने

दिल न होशियार रहे और न दीवाना बने

ये तमन्ना है कि ख़ाक दर-ए-जानाना बने

हुस्न ऐ हुस्न ये है तेरी करिश्मा-साज़ी

का'बा बन जाए कहीं और कहीं बुत-ख़ाना बने

होश और कश्मकश-ए-होश इलाही तौबा

वही होशियार है उल्फ़त में जो दीवाना बने

इस तमन्ना से मैं ऐ इश्क़ ख़जिल होता हूँ

दिल की तक़दीर कि वो हुस्न का नज़राना बने

हुस्न महसूस से है जल्वा-ए-मुतलक़ मतलूब

न सही का'बा तो दिल-ए-माइल बुत-ख़ाना बने

मय-परस्ती का मुअ'य्यन कोई मेआ'र नहीं

जिस का जो ज़र्फ़ हो साक़ी वही पैमाना बने

उन की सरशार निगाहों के तसद्दुक़ कहिए

हासिल-ए-कैफ़ जो पैमाना-ब-पैमाना बने

सोज़ उल्फ़त के ख़ुदा शम्अ' नहीं है न सही

फूँक इतना मिरी हस्ती को कि परवाना बने

साग़र-ए-दिल में है कैफ़िय्यत-ए-सहबा-ए-अलस्त

बूँद बूँद उस की न क्यूँ हासिल-ए-मय-ख़ाना बने

आप इक रोज़ तवज्जोह से जो सुन लें सर-ए-बज़्म

दिल की रूदाद का हर लफ़्ज़ इक अफ़्साना बने

आज मुझ को वो मय-ए-होश-रुबा दे साक़ी

और तो और दिल अपने से भी बेगाना बने

काश मिट मिट के मिरी हस्ती-ए-नाचीज़ 'ग़ुबार'

ख़ाक हो जाए तो ख़ाक-ए-दर-ए-जानाना बने

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